उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में विविध प्रकार के जंगली भोजनयोग्य पौधे पाए जाते हैं, जिन्हें स्थानीय लोग सदियों से अपने भोजन में शामिल करते आए हैं। इन पौधों में कई ऐसे किस्में हैं जो विटामिन, खनिज और पोषक तत्वों से भरपूर होती हैं और परंपरागत रूप से साग, चटनी या फलों के रूप में उपयोग की जाती हैं। अध्ययन बताते हैं कि उत्तराखंड में लगभग 94 जंगली खाद्य पौधों की प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें 67 जंगली फल और 27 जंगली सब्जियाँ शामिल हैं। यह प्रचुर जैव-विविधता स्थानीय लोगों के पोषण और औषधीय आवश्यकताओं को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
उत्तराखंड में जंगली खाद्य पौधे की सूची
गिरार्डीनिया डायवर्सिफोलिया (कांडाली)
गिरार्डीनिया डायवर्सिफोलिया (स्थानीय नाम: कांडाली, बिच्छू घास) एक बारहमासी जड़ी-बूटी है। यह 1.5–3 मीटर ऊँचा बढ़ता है और मुख्यतः 1,200–3,000 मीटर की ऊंचाई पर हिमालय की बंजर या आर्द्र जगहों में पाया जाता है। इस पौधे की कोमल पत्तियाँ और फूल पकाने पर कांटे निष्क्रिय हो जाते हैं, इसलिए स्थानीय लोग इन्हें सब्जी की तरह पकाकर खाते हैं। कांडाली का साग उत्तराखंड की पारंपरिक व्यंजनों में लोकप्रिय है। पौधे में आयरन, विटामिन-A और रेशों की प्रचुरता होती है, इसलिए इसे स्वास्थ्यवर्धक माना जाता है। तंतुयुक्त तने का उपयोग देसी रस्सियों और मट्टियाँ बनाने में भी होता है, हालांकि यह खाद्य रूप में नहीं खाया जाता।
बथुआ (Chenopodium album)
बथुआ (अंग्रेजी: Lamb’s quarters) एक तेज़ी से बढ़ने वाली वार्षिक घास है, जिसकी ऊँचाई 30–80 सेमी तक होती है।11 इसके पत्ते मोती की सफेदी का कोट लिए होते हैं और तने के ऊपरी भाग के पत्ते अंडाकार-तीक्ष्ण आकार के होते हैं |22बथुआ के नौनिहाल पत्ते पालक की तरह पकाकर साग के रूप में उपयोग किए जाते हैं, या कच्चे सलाद में मिलाए जाते हैं। इसके फूल और फूलों के बडे गुच्छे भी तरकारी के रूप में खाए जाते हैं। पोषण की दृष्टि से देखें तो बथुआ अत्यंत लाभकारी है: 100 ग्राम कच्चे बथुआ में लगभग 43 कैलोरी होती हैं तथा यह विटामिन C और A का बहुत अच्छा स्रोत है (सर्वदैनिक आवश्यकता के क्रमशः 96% और 73% देने वाले मात्रा में)। इसके साथ ही इसमें कैल्शियम, लोहा, राइबोफ्लेविन इत्यादि भी पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। उत्तराखंड के लोग बथुआ को देसी घी या घीयुक्त दही में पकाकर भाजी या रायता के रूप में खाते हैं।
मकोय (Solanum nigrum)
मकोय (स्थानीय नाम: काकमाची, भटकोइया) एक झाड़ीदार पौधा है जिसके फूल छोटे सफ़ेद और गुच्छों में लगे होते हैं। इस पर खंडित पंखुड़ियों के साथ गोल आड़ू का फल लगता है जो पकने पर बैंगनी-नीला हो जाता है। मकोय के पकने पर लगे फल मीठे-नमकीन स्वाद के होते हैं और स्थानीय लोग इन्हें कभी-कभी कच्चा या जूस की तरह खाते हैं। इसके पत्ते थोड़े जहरीले होते हैं, लेकिन उबालकर अच्छी तरह पकाने पर पालक की तरह स्वादिष्ट और पौष्टिक सब्जी बन जाते हैं। गुर्दों की कई बीमारियों, खांसी-जलन और त्वचा रोगों में भी आयुर्वेद में मकोय का प्रयोग किया जाता रहा है। विशेषतः काकमाची के जूस को कान में डालन से कान दर्द में राहत मिलती है और उबले पत्तों का प्रयोग पाचन तंत्र संबंधी समस्याओं में लाभदायक होता है।
जिंजन (Allium wallichii)
जिंजन या हिमालयन प्याज़ (हिंदी: गोंभका/लड्डू, नेपाली: बन-लसुन) एक लहसुन-सब्ज़ीदार पौधा है जिसके फूल गुलाबी फूलों का गुच्छा बनाते हैं। इसका बल्ब हल्का पीला होता है जिसका स्वाद लहसुन जैसा तीखा होता है। जिंजन के बल्ब और पत्तियाँ मसाले के रूप में उपयोग की जाती हैं, खासकर दाल-तरकारी और अचार में। उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाने वाली यह पौधा पाचन-संस्थान के लिए लाभदायक मानी जाती है। देसी औषधियों में जिंजन का प्रयोग खांसी, सर्दी-खांसी और दस्त जैसी बीमारियों में भी किया जाता है।
काफल (Myrica esculenta)
काफल (अंग्रेजी: Box myrtle) एक मध्यम आकार का फलदायी पेड़ है, जिसके फलों का स्वाद खट्टा-मीठा होता है। ये फलों के गुच्छे मार्च-अप्रैल में पकते हैं और स्थानीय लोग इन्हें छौंककर या नमक छिड़क कर खाते हैं। काफल के फलों और छाल से तैयार काढ़े का पारंपरिक औषधीय उपयोग हृदय रोग, बुखार और सूजन में होता रहा है। स्थानीय लोग काफल के रस को शर्बत या जूस बनाकर भी पीते हैं। काफल में विटामिन A और C प्रचुर मात्रा में होते हैं, इसलिए इसे पौष्टिक माना जाता है। पेड़ की लकड़ी और छाल का उपयोग भी हथकरघे के कार्यों और स्थानीय औषधि नुस्खों में होता है।
हिसालू (Rubus ellipticus)
हिसालू (Yellow Himalayan Raspberry) एक काँटेदार झाड़ी है जिसके फल सुनहरे पीले होते हैं। यह उत्तराखंड के खुले घास और बालू-रेतीले जंगलों में 1,500–2,100 मीटर ऊंचाई पर पाया जाता है। हिसालू का फल मीठा-खट्टा स्वाद का होता है, और यह पक्षियों के साथ-साथ स्थानीय लोगों द्वारा भी कभी-कभी कच्चा खाया जाता है। मौसम में इसकी पैदावार सीमित अवधि के लिए होती है, इसलिए लोग पकते ही फल बटोरकर ताज़ा खा लेते हैं या जैम-चटनी बना लेते हैं। हिसालू को कभी-कभार जूस बनाकर या मीठे व्यंजनों में भी मिलाया जाता है।
बेड़ू (Ficus palmata)
बेड़ू या पहाड़ी अंजीर (English: Indian Fig) एक बड़ा पेड़ है, जिसके फलों में रस की मात्रा लगभग 45% तक होती है। बेड़ू के फल पाकते समय हल्के पीले से गाढ़े गुलाबी-लाल हो जाते हैं। यह फल मीठा और रसीला होता है, और उत्तराखंड में इसे छिलका उतारकर सीधे या नमक-मिर्च छिड़ककर खाया जाता है। आयुर्वेद में बेड़ू के रस को मूत्राशय एवं फेफड़ों की तकलीफों में लाभकारी माना गया है। इसके अतिरिक्त बेड़ू की मोटी पत्तियाँ और टहनियाँ भी पारंपरिक चिकित्सा में उपयोग होती हैं, लेकिन मुख्यतः फल ही खाध्य पदार्थ के रूप में उपयोग में आते हैं।
तिमला (Ficus auriculata)
तिमला (अंग्रेजी: Elephant Fig) सुनने में बड़ा फ़िग जैसा पेड़ है, जिसके फल ताज़ा खाए जाते हैं। उत्तराखंड की निचली घाटी और उपजैविक जंगलों में पाया जाने वाला यह पेड़ मार्च-अप्रैल में गोल-फल देता है। तिमला का फल मलाईदार और हल्का खट्टा-मीठा होता है। स्थानीय लोग तिमले के ताजे फल सीधे खाते हैं या उनका रस निकालकर पीते हैं। आयुर्वेद में तिमला को मूत्रवर्धक, रेचक और पाचन सुधारक गुणों वाला माना गया है। पेड़ की बड़े आकार की पत्तियाँ कभी-कभी थाली या प्लेट के रूप में उपयोग की जाती हैं, लेकिन मुख्य उपयोग इसके फल का ही है।
पारंपरिक उपयोग एवं व्यंजन
उत्तराखंड की पहाड़ी खाद्य संस्कृति में इन जंगली पौधों का व्यापक उपयोग होता है। शाकाहारी भोजन में अक्सर इनके साग, सब्जियाँ या आचार बनते हैं। उदाहरण के लिए, कांडाली और बथुआ के पत्ते घी या मसाले के साथ मिलाकर पकाए जाते हैं (जैसे “कांडाली का साग” या “बथुआ की भाजी”), मकोय के पत्ते उबालकर दाल या मूँगफली की चटनी में मिलाए जाते हैं, और जिंजन का बल्ब अचार में मसाले के रूप में काम आता है। जंगली फलों में, काफल से शर्बत या रस बनाया जाता है, और बेड़ू के फल ताजे या सूखे रूप में विशेष व्यंजनों में डाले जाते हैं। इसके अतिरिक्त कई पौधों की छाल या तनों का आयुर्वेदिक रस तैयार कर स्थानीय घरों में औषधि के रूप में भी प्रयोग होता है। इस प्रकार, उत्तराखंड के वन इन पौधों से न केवल दैनिक भोजन में बहुमूल्य पोषण पाते हैं, बल्कि पारंपरिक चिकित्सीय उपयोग भी प्राप्त करते हैं।
पोषण मूल्य
इन वनस्पतियों में कई महत्वपूर्ण पोषक तत्व पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए, बथुआ का कच्चा पत्ता कैलोरी में कम (≈43 कैलोरी/100 ग्राम) होते हुए विटामिन A (≈73% दैनिक मान), विटामिन C (≈96% दैनिक मान) और कैल्शियम का अच्छा स्रोत है। इसी तरह अन्य जंगली सागों में विटामिन A, विटामिन C, आयरन, कैल्शियम और फाइबर भरपूर मात्रा में मिलते हैं। चूंकि ये पौधे सर्वत्र स्वतः उगते हैं और रासायनिक उर्वरक-मिट्टी से अप्रभावित होते हैं, इनकी पोषण गुणवत्ता भी बेहतर मानी जाती है। ग्रामीण परिवार इन्हें अपने आहार में शामिल करके पोषण संतुलन बनाए रखते हैं, क्योंकि कई बार इनके विटामिन और खनिज मान पारंपरिक खेतों में उगाए जाने वाले फलों-सब्जियों से भी अधिक होते हैं।
पौधे का नाम (स्थानीय) | वैज्ञानिक नाम | विटामिन C (mg) | आयरन (mg) | कैल्शियम (mg) | फाइबर (g) | ऊर्जा (kcal) | मुख्य पोषक लाभ |
---|---|---|---|---|---|---|---|
बथुआ | Chenopodium album | 96 | 3.0 | 309 | 4.2 | 43 | विटामिन A, C, कैल्शियम |
काफल | Myrica esculenta | 180 | 1.2 | 90 | 3.1 | 56 | एंटीऑक्सिडेंट, डाइजेस्टिव टॉनिक |
हिसालू | Rubus ellipticus | 90 | 1.5 | 50 | 2.5 | 52 | विटामिन C, फाइबर |
मकोय | Solanum nigrum | 50 | 2.5 | 110 | 2.8 | 49 | लीवर टॉनिक, त्वचा रोग में उपयोगी |
बेड़ू | Ficus palmata | 35 | 2.0 | 120 | 3.0 | 60 | पाचन सहायक, फल रसीले |
कांडाली | Girardinia diversifolia | 70 | 4.5 | 280 | 3.5 | 65 | हाई प्रोटीन, उच्च आयरन |
तिमला | Ficus auriculata | 45 | 1.8 | 130 | 2.6 | 58 | मूत्रवर्धक, रेचक गुण |
डिप्लाज़ियम (लिंगुरा) | Diplazium esculentum | 65 | 2.0 | 210 | 4.0 | 40 | फाइबर युक्त, कफ-नाशक |
जाख्या (तड़का बीज) | Cleome viscosa | 80 | 3.2 | 250 | 4.5 | 55 | पाचन में सहायक, मसाला रूप में उपयोग |
बिच्छू बूटी | Urtica dioica | 100 | 5.5 | 320 | 4.8 | 41 | आयरन से भरपूर, रक्तवर्धक |
औषधीय गुण
उत्तराखंड की पारंपरिक चिकित्सा में इन जंगली पौधों का विशेष स्थान है। उदाहरणस्वरूप:
- काफल के फल और छाल से बनाए काढ़े को हृदय रोग, सूजन (एडेमा) और फुफ्फुसीय खांसी में लाभदायक माना गया है।
- बेड़ू के फल मूत्रवर्धक और फेफड़ों की शिकायतों में उपयोगी हैं, साथ ही इनमें फास्फोरस और थोड़ा विटामिन C भी पाया जाता है।
- मकोय की उबली हुई पत्तियों और पकने वाले फलों का आयुर्वेदिक उपयोग अनेक रोगों में होता है; पारंपरिक रूप से इसे त्वचा रोग, घाव-फुंसी, कफ और बुखार में लगाया जाता रहा है।
- तिमला के फलों को रेचक (पेट साफ करने वाला) और मूत्रवर्धक गुणों वाला माना गया है।
- कांडाली (गिरार्डीनिया) में भी आयरन और विटामिन के रूप में औषधीय गुण हैं, और इसके काढ़े से पुरानी ज्वर या खून की कमी दूर करने में फायदा होता है (स्थानीय परंपरा)।
- बथुआ को पाचन सुधारने और कब्ज में राहत देने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है।
इन पौधों की औषधीय गतिविधि आज के विज्ञान द्वारा भी अनुशीलित की जा रही है, जिनसे कई दवाईयों के नए तत्व विकसित किए जा सकते हैं।
निष्कर्ष
उत्तराखंड के स्थानीय जंगली पौधे न केवल क्षेत्रीय खान-पान में अद्वितीय योगदान देते हैं, बल्कि इनकी पोषण एवं औषधीय गुणवत्ता भी बहुत उच्च है। पहाड़ों के कठिन मौसम में जीवित रहने वाले स्थानीय लोग इन पौधों के ज्ञान पर निर्भर रहे हैं, जिससे उन्हें विविध पोषक तत्व और प्राकृतिक उपचार मिलते रहे हैं। आधुनिकता के चलते इन पारंपरिक उपयोगों में कमी आई है, इसलिए इन वनस्पतियों की सुरक्षा और स्थानीय ज्ञान के संरक्षण की आवश्यकता है। इन पौधों के पौष्टिक और औषधीय गुणों पर और शोध किया जाना चाहिए, ताकि वे स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य लाभ के साथ-साथ जैव-विविधता संरक्षण में भी सहायक बन सकें।